जीवन कथाएँ >> अपने अपने पिंजरे - 2 अपने अपने पिंजरे - 2मोहनदास नैमिशराय
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अपने अपने पिंजरे 2...
Apane Apane Pinjre - 2 - Hindi Book by Mohandas Naimishrai
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरे जीवन में एक ऐसी घटना हो गयी जिसने मुझे लड़के से पुरुष बना दिया। यूँ उसे दुर्घटना भी कहा जा सकता था। महानगरीय भोग और संभोग की चरम संस्कृति का यह मेरा पहला अनुभव था। न जाने कैसे यह सब हो गया था। उस समय सपने जैसा लगा था। अपने अकेलपन को एक रात उसने मेरे साथ बाँटा था। हालाँकि वह उम्र में मुझसे दोगुनी थी। पर उसकी देह अब भी भरी-पूरी थी। गोरे रंग की चौड़े माथवाली औरत थी वह, पर मेरा शरीर पाने और झिंझोड़ने का न उसके भीतर उन्माद था और न आक्रोश, बल्कि वह तो स्वयं पिघलनेवाली औरतों में से थी, जो अपनी उदास और तनहा रात में भले ही चन्द पलों के लिए किसी मर्द की बाँहों मैं खो जाना चाहती थी। पर न तो मेरी भुजाएँ भीष्म जैसी थीं और न ही मेरी छाती पर काले बाल तब तक उगे थे। मैं वैसा मर्द तो न था। मैं तो उसके लिए बस नर्म गोश्त का टुकड़ा भर था। उस रात उसने मुझे मर्द बना दिया था। एक मर्द को ऐसे समय क्या करना चाहिए, यह भी सिखला दिया था।
मेरी बात
यादों के जंगल में खोजता हूँ तो बचपन से जवान होने तक के सफर में अनगिनत घटनाओं/दुर्घटनाओं के चित्र आँखों के सामने तैर उठने से मेरे भीतर दर्द उभर आता है। उस दर्द की कसक या तो मैं जानता हूँ या मेरी जात के लोग। उन निर्मम यादों को भूलूँ भी तो भला कैसे...।
मुझसे किसी ने पूछा, ‘‘आप अपने परिवार तथा रिश्तेदारों के अंतरंग संबंधों तथा बातों को बिना किसी हिचकिचाहट के उजागर करते हो। कैसा लगता है ?’’
‘‘न अच्छा और न बुरा।’’ मेरा जवाब होता है।
‘‘फिर।’’ सामनेवाला पुनः सवाल कर देता है।
‘‘बस मन को अजीब-सी तृप्ति होती है। मेरे भीतर बरसों से जो बादल उमड़ रहे होते हैं, वे बरस उठते हैं।’’
‘‘इतना ही।’’ सवाल करनेवाला मुझसे जैसे और कुछ चाहता है।
‘‘बस इतना ही। बादल नहीं बरसेंगे तो विस्फोट हो सकता है। आत्मकथा लिखने से मेरे भीतर का विस्फोट बाहर आ रहा है। दलित अस्मिता के सवाल उभर रहे हैं। वे अपनी जड़ों की तलाश कर रहे हैं।’’
मेरी जिंदगी में आधा सूरज ही क्यों आया ? आधा सूरज यानी आधा उजास। अँधेरे-उजाले की कशमकश में जैसा मैं, वैसे ही मेरी जात के अनुत्तरित सवाल। मैं भी असंतुष्ट, मेरी जात के लोग भी असंतुष्ट। कौन संतुष्ट करेगा आखिर। इस मर्म को बहुत बाद में जाना था। व्यक्ति हो या समाज, उसे अपने हक, अधिकार स्वयं ही लेने होते हैं। बैसाखियों पर जीवन नहीं चलता। चलेगा भी तो कितने दिन, कितने बरस, कितने दशक। जिंदगी तो बहुत बड़ी होती है।
मुझसे किसी ने पूछा, ‘‘आप अपने परिवार तथा रिश्तेदारों के अंतरंग संबंधों तथा बातों को बिना किसी हिचकिचाहट के उजागर करते हो। कैसा लगता है ?’’
‘‘न अच्छा और न बुरा।’’ मेरा जवाब होता है।
‘‘फिर।’’ सामनेवाला पुनः सवाल कर देता है।
‘‘बस मन को अजीब-सी तृप्ति होती है। मेरे भीतर बरसों से जो बादल उमड़ रहे होते हैं, वे बरस उठते हैं।’’
‘‘इतना ही।’’ सवाल करनेवाला मुझसे जैसे और कुछ चाहता है।
‘‘बस इतना ही। बादल नहीं बरसेंगे तो विस्फोट हो सकता है। आत्मकथा लिखने से मेरे भीतर का विस्फोट बाहर आ रहा है। दलित अस्मिता के सवाल उभर रहे हैं। वे अपनी जड़ों की तलाश कर रहे हैं।’’
मेरी जिंदगी में आधा सूरज ही क्यों आया ? आधा सूरज यानी आधा उजास। अँधेरे-उजाले की कशमकश में जैसा मैं, वैसे ही मेरी जात के अनुत्तरित सवाल। मैं भी असंतुष्ट, मेरी जात के लोग भी असंतुष्ट। कौन संतुष्ट करेगा आखिर। इस मर्म को बहुत बाद में जाना था। व्यक्ति हो या समाज, उसे अपने हक, अधिकार स्वयं ही लेने होते हैं। बैसाखियों पर जीवन नहीं चलता। चलेगा भी तो कितने दिन, कितने बरस, कितने दशक। जिंदगी तो बहुत बड़ी होती है।
- मोहनदास नैमिशराय
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